१८३९ में महाराज रंजीत सिंह दुनिया से रूक्षत हुए और उत्तर पछिम भारत में सीखो का साम्राज्य सिकुड़ता चला गया । १८४५ में पहला एंग्लो-सिख युद्ध हुआ और अंग्रेज जित गए और १८४६ में लाहौर ट्रेटी पर दस्तखत हुए। और कश्मीर अंग्रेजो के हिस्से में चला गया। लेकिन इस ठन्डे और पहाड़ी इलाके में कीमती समय और पैसा खर्च करने में अपनी दिलजस्पी ले नहीं रहे थे। लिहाजा वही तरीका अपनाया गया जैसा बाकि कई रियासतों में अपनाया गया था कुछ ही दिनों बाद अंग्रेजो ने ७५ लाख रुपये लेके कश्मीर और गिलगित बाल्टिस्तान को महाराज गुलाब सिंह के हवाले कर दिया, लेकिन अपने पोलिटिकल एजेंट के द्वारा बहार से पकड़ बनाये राखी।
महाराज रंजीत सिंह
महाराजा गुलाब सिंह
इसी दौरान रूस सेंट्रल एशिया में अपनी पकड़ बनाने की कोशिश कर रहा था जिसका रास्ता गिलगित बाल्टिस्तान होके खुलता था। अंग्रेज किसी हाल में ऐसा होने नहीं देना चाहते थे, लिहाजा अंग्रेजो ने १८७७ में गिलगित को जोड़ के नया नाम दिया गिलगित एजेंसी। १९१३ में इसकी देखरेख के लिए अंग्रेजो ने मिलिट्री बनायीं जिसका नाम था गिलगित स्काउट, इसमें लोकल लोग शामिल थे लेकिन कमांड ब्रिटिश लोगो के हाथ में थी। १९३५ में जब दूसरे विश्व युद्ध के आसार नजर आने लगे तो ब्रिटश ने गिलगित को महाराज हरी सिंह से ६० साल के लिए लीज पे ले लिया। तब से ये इलाका फ्रंटियर एजेंसी के नाम से जाना जाने लगा।
फिर आया १९४७ जब अंग्रजो ने भारत से जाने की ठानी तो उनके लिए सवाल ये नहीं था की कश्मीर कहा जायेगा। उनके हिसाब से कश्मीर हरिसिंह की रियासत थी और सभी रियासतों को ये हक़ था की वो किसे सुने लेकिन गिलगित का इलाका हरी सिंह के कब्जे में तो था नहीं वो तो अंग्रेजो ने लीज़ पे उठाया हुआ था। लेकिन वह के प्रशासन को ये इलाका किसी न किसी को तो सपना था। इसलिए ये तय हुआ की गिलगित का इलाका महाराजा हरी सिंह को वापस सोप दिया जाये। इसकेलिए तारीख तय हुयी थी १ ऑगस्ट। गिलगित का प्रशासन हाथ में लेने के लिए महाराजा हरी सिंह ने ब्रिगेडियर घनसारा सिंह को वहा का गवर्नर बनाया और वह भेजा।
महाराजा हरी सिंह
जब ब्रिगेडियर घनसारा सिंह गिलगित पहुंचे तो पता चला वह अलग ही खेल चल रहा है वह के नौकरशाहों ने आपदा में अवसर खोज लिया था। उन्होंने कहा की जब तक उनकी तनखाह बढ़ायी नहीं जाएगी वो किसी के हुकुम की तामील नहीं करेंगे। तब घनसारा सिंह ने कश्मीर को कई सन्देश भेजे की गिलगित में हालात काबू से बहार जा सकते है। तब जम्मू एंड कश्मीर फाॅर्स के मुखिया हुआ करते थे जनरल सकॉट। घनसारा के साथ वो भी गिलगित पहुंचे हुए थे। १ अगस्त आया और चला गय। कहा हरी सिंह गिलगित की आस लगाए बैठे थे और उन्हें पता चला की कश्मीर की गद्दी भी खतरे में पड़ सकती है जब सकॉट हालात से रूबरू करवाने कश्मीर पहुंचे तो हरी सिंह उनकी बात का तवज्जो नहीं दी।
गिलगित स्काउट
हरी सिंह खुद उलझन में थे की कश्मीर किसकी तरफ जाये। सबसे आसान ऑप्शन था की कश्मीर भारत या पाकिस्तान दोनों मेसे किसी को न चुने ताकि उनकी रियासत बरकार रहे। पाकिस्तान पे वो भरोसा कर नहीं सकते थे और भारत न नरम रवैया देख के उनको लगा की अभी निर्णय लेने में काफी समय है। उधर गिलगित में पेठ बनाने के लिए लोकल कबीलो से रफ्ता किया लेकिन घनसारा सिंह के पास न तो पैसे थे न ही तब तक उनकी पेठ वह बन पायी थी। ऊपर गिलगित के ७५ प्रतिशत इलाके पे स्काउट का कब्ज़ा था। जो दिन पर दिन गवर्नर की अथॉरिटी को धत्ता बताये जा रहे थे।
कुल मिला कर कहे तो बारूद का ढेर तैयार था जिसको सिर्फ एक चिंगारी की जरुरत थी और जिसे वह गिरने में जयादा दिन भी नहीं लग। एक अंग्रेज अफसर की एंट्री होती है विलियम ब्राउन। अधिकतर अंग्रेज भारत पाकिस्तान से निकलने की तैयारी में थे लेकिन ब्राउन पैर देशभक्ति का जोश कायम था और वो भी पाकिस्तान की तरफ से। उन्होंने ठानी थी की जब तक गिलीगत पाकिस्तान से मिल नहीं जाता वो निकलेंगे नहीं। उधर पाकिस्तान ने लिखित में वादा किया था की वो स्टट्स बनाये रखेगा। हरी सिंह से उनको कुछ खाद उम्मीद थी नहीं लेकिन है शेख अब्दुल्ला पे उनको भरोसा था की वो कश्मीर की आवाम को पाकिस्तान की तरफ कर लेंगे।
शेख अबुल्ला
शेख अब्दुल्ला का सुर भी बदलता जा रहा था कभी वो भारत के पक्ष में नजर आते तो कभी वो अलग आजाद कश्मीर के। इसे देखते हुए पाकिस्तान ने कश्मीर में ऑपरेशन गुलमर्ग की शरुआत कर दी। २०० से ३०० लोरियों में भर कर आये कबीलाईयो ने कश्मीर पर हमला कर दिया। वो श्रीनगर के तरफ बढ़ने लगे और राजा के कई सिपाही हमलावरों की तरफ हो लिए थे इन्होने एलान कीया की २६ अक्टूबर को श्रीनगर फ़तेह कर के वह की मस्जिद में ईद का जश्न मनाएंगे।
जब बात हाथ से निकलती दिखी तो हरी सिंह ने २४ अक्टूबर को दिल्ली से मदद मांगी। मामले की नाजुकता को देखते हुए माउंटबेटन की अधयक्षता में डिफेन्स कमिटी की बैठक हुयी तय हुआ की V K मेमन कश्मीर पहुंचेंगे और कश्मीर पहुंचते ही उन्होंने राजा हरी सिंह से मुलाकात की। हरी सिंह के पास अब कोई चारा नहीं बचा था की वो भारत में विलय करे या नहीं करे। इसलिए वो भारत के साथ विलय को तैयार हुए और २६ अक्टूबर १९४७ को उन्होंने इन्सुट्रुमेंट ऑफ़ अक्सेसन पे दस्खत कर दिए और आधिकारिक रूप से कश्मीर का भारत में विलय हुआ।
फिर मदद की अपील करते हुए हरी सिंह में गवर्नर जनरल की चिठ्ठी लिखी और उसमे लिखा की वो तात्कालिक अंतरिम सरकार का गठन करना चाहते है। इसमें शासन की जिम्मेदारी निभाएंगे शेख अबुल्ला हुए रियासत के वजीर मेहरचंद महाजन। दोनों चीजे लेके मेनन दिल्ली पहुंचे और फिर से डिफेन्स कमिटी की बैठक हुयी जिसमे नेहरू का कहना था की अगर कश्मीर में फौज नहीं भेजी तो जबरदस्त मारकाट होगी तो तय हुआ की कश्मीर में फौजी कार्यवाही की जाये और जब कश्मीर में हालत सामान्य हो जाये तो कश्मीर में जनमत संग्रह करवाया जाये।
२७ अक्टूबर को भारतीय सेना श्रीनगर में लैंड हुयी और कबाईलियों के साथ जंग की शरुआत हुयी।
गिलगित में क्या हुआ
गिलगित में दूसरा ही खेल चल रहा था वह अब तक पाकिस्तान की एंट्री नहीं हुयी थी। जब कश्मीर में भारत के एंटर हुआ तो विलियम ब्राउन को अंदेशा हुआ की अगर कुछ न किया गया तो भारत गिलगित भी पहुंच सकता है इसीलिए वो १०० से जयादा गिलगित स्काउट को लेके पंहुचा गवर्नर निवास और निवास को घेर लिय। उसने गवर्नर से सरेंडर करने को कहा लेकिन वो सरेंडर पर रुका नहीं। उसने कश्मीर लाइट इन्फेंट्री डिवीजन ६ के सेनिको को भी मोत के घाट उतार दिया। इसके ४ दिन बाद गिलगित में पाकिस्तान के झंडा फहरने लगा ये सब विलियम की कारस्तानी थी लेकिन वो अपने अधिकारियो को बता रहा था की ये सब अवाम का विद्रोह है।
गिलगित बाल्टिस्तान
ये बात पाकिस्तान के हक़ की थी इसलिए वो नहीं चाहते थे की इसमें पाकिस्तान का हाथ दिखे भी। और पाकिस्तान आज भी ये दावा करता है की गिलगित का विद्रोह अवाम का विद्रोह था। जबकि विलियम ब्राउन ने खुद पानी किताब गिलगित रिबेलियन में इस बात की तस्दीक की है की गिलगित में जो कुछ हुआ वो उसके इशारे पे हुआ था और उसमे गिलगित स्काउट का ही हाथ था। जनवरी १९४८ में गिलीगत स्काउट की कमर जनरल असलम के हाथ में दी। ये वही थे तो कश्मीर में घुसे कबयिलियो का नेतृत्व कर रहे थे। अगले कुछ दिनों में पाकिस्तान में अपनी सेना भेज के पुरे गिलगित पे कब्ज़ा जमा लिया। पाकिस्तान भी इसको आजाद कश्मीर कह कर नॉर्दन एरिया कहता रहा।
पाकिस्तान का कहना है की राजा हरी सिंह लोगो द्वारा चुने नहीं गए तो उनका गिलगित पे दावा केसा इस लॉजिक के हिसाब से जितनी रियासतों में पाकिस्तान को चुना उनमे तो कोई राजा लोगो द्वारा चुना हुआ तो था नहीं तो इस लिहाज से कोई भी रियासत पाकिस्तान की कैसे हो सकती है।
गलत था या सही था क्युकी तब का जमाना जिसकी लाठी उसकी भेस था। गिलगित को अंग्रेजो ने लीज पे लिया था और लोटा भी दिया था सिर्फ मुँह जबानी नहीं बाकायदा लिखित में।
तो दस्तावेजों के हिसाब से गिलगित बाल्टिस्तान का निर्णय राजा हरी सिंह को ही करना था और हरी सिंह के दस्तखत इस बात की गवाही देते है की उन्होंने भारत के साथ अपनी रियासत का विलय कर दिया है।
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