हरी सिंह नलवा – सिक्खो का पराक्रमी यौद्धा

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Hari singh nalwa
Hari singh nalwa

हरी सिंह नलवा का जन्म 1791 में गुजरावाला में हुआ था। 1967 में आयी फिल्म उपकार का नाम अपने सुना होगा। उस फिल्म के गाने मेरे देश ही धरती सोना उगले गाने के दूसरे अन्तरे के बोल है रंग हरा हरी सिंह नलवे से रंग लाल है लाल बहादुर से रंग बना बसंती भगत सिंह। इस गाने में जो हरी सिंह नलवा है उसके बारे में बताता हूँ। 

साल 2014 में ऑस्ट्रेलिया की एक पत्रिका ने इतिहास के दस बड़े विजेताओं को सूचि निकाली और इस सूचि में हरी सिंह नलवा का नाम सबसे ऊपर था। काबुल और पाकिस्तान में एक कहावत आम है जिसमे माँ अपने बेटे से कहती है की सो जा बेटे नहीं तो हरी सिंह नलवा आ जायेगा। 

एक बार हरी सिंह शिकार को निकले वह उनका पाला एक बाघ से पड़ा। हरी सिंह ने अकेले ही बाघ को मार गिराया और जब ये बात महाराज रणजीत सिंह को पता चली तो उन्होंने कहा वाह मेरे राजा नल वाह। इस तरह हरी सिंह का नाम हरिसिंह नलवा हो गया। उनका एक नाम था बाघमार। 

हरी सिंह की उम्र तेरह साल थी जब वो महाराजा रणजीत सिंह के दरबार में पहुंचे। एक सम्पति विवाद के मामले में हरी सिंह लाहौर आए थे और उस दिन दरबार में कुश्ती का आयोजन रखा गया था। हरी सिंह ने देखा महाराज रणजीत सिंह एक पहलवान का सम्मान कर रहे है तब हरी सिंह ने कहा की में इनको हरा सकता हूँ। महाराज से आज्ञा दी और कुश्ती का आयोजन हुआ। कहते है की हरी सिंह कुछ ही मिनटों में अपने से बड़े पहलवान को धूल चटा दी तब महाराज रणजीत सिंह ने हरी सिंह को अपने अंगरक्षक के रूप में रख लिया। जल्द ही तरक्की करते हुए हरी सिंह सिक्ख सेना के कमांडर भी बन गए। 

हरी सिंह नलवा - सिक्खो का पराक्रमी यौद्धा
हरी सिंह नलवा – सिक्खो का पराक्रमी यौद्धा

महाराज रणजीत सिंह सिक्ख साम्राज्य को पच्छिम में काबुल तक फैलाना चाहते थे इसलिए उन्होंने इसकी जिम्मेदारी हरी सिंह को दी।  16 साल की उम्र में हरी सिंह लड़ाई लड़ के सबसे पेहे कसूर को सिख साम्राज्य में मिलाया। 1827 आते आते वो अटोक तक जित चुके थे लेकिन पेशावर पर अभी अभी काबुल के दोस्त मोहम्मद का कब्ज़ा था।  तब तक हरी सिंह की धाक इतनी जम चुकी थी की जब उन्होंने पेशावर पर हमला किया पेशावर की सेना ने बिना लड़े हरी सिंह के सामने हथियार डाल दिए। 

हरी सिंह ने 20 से जयादा लड़ाईयों में सिख सेना का नेतृत्व किया और 1813 में अटोक 1814 में कश्मीर 1816 में मेहमूदकोट 1818 में मुल्तान 1822 में मानकेरा 1823 नौशेरा को सिख साम्राज्य में मिलाया। 1834 में पेशावर पर कब्ज़ा करने के बाद हरी सिंह जमरूद की तरफ बढे जो खैबर पख्तूनवा की सिमा पे था। 1836 में हरी सिंह ने जमरूद को भी अपने कब्जे में ले लिया। अब खैबर दर्रा सामने था। दोस्त मोहम्मद जानते थे की एक बार इन्होने खैबर दर्रा पर कर लिया तो जल्दी काबुल भी उनके हाथ से निकल जायेगा। 

दोस्त मोहम्मद ने अपनी फौज को इक्कठा किया और मोके की तलाश में थे की वो कब जमरूद और पेशावर को फिर से अपने कब्जे में ले। अफगानो को इतनी बार हार मिली थी तो उनके हौसले पस्त थे। उनमे हरी सिंह पर हमला करने की हिम्मत तो नहीं हुयी लेकिन अफगान फौज को खैबर दर्रे के मुहाने पर तैनात कर दिया। सेना की अगवाई दोस्त मोहम्मद के पांच बेटे कर रहे थे।  इस बीच 1837 में लाहौर में महाराज रणजीत के पोत्र की शादी का आयोजन हुआ और ब्रिटिश फौज के कमांडर को मेहमान से तोर पे बुलाया गया। 

ये शक्ति पर्दशन का मौका था इसलिए पुरे पंजाब से फौज को लाहौर में बुलाया गया था लेकिन हरी सिंह ने खतरे हो देखते हुए पेशवर में रुकना सही समझा। जमरूद के किल्ले में सिर्फ 600 सैनिक तैनात थे जब इसकी जानकारी दोस्त मोहम्मद को मिली तो उसने फौज को जमरूद को घेर लेने का आदेश दे दिया तो हरी सिंह मदद के लिए जाने की ठानी लेकिन महाराज रणजीत सिंह से उनको रोक लिया और कहा की जब तक और मदद न आये तो ना जाये। 

जमरूद के किल्ले में 600 सिपाही और किल्लेदार महान सिंह अकेले फसे थे और उनके पास रसद भी कम थी इसलिए हरी सिंह जमरूद की और निकल ही गए। अफगान फौज संख्या में बोहत अधिक थी लेकिन जब उन्हें पता चला की हरी सिंह नलवा आ रहे है तो अफगान फौज में खलबली फेल गयी। आखिर में दोनों सेनाओ में भिड़ंत हुयी और हरी सिंह बुरी तरह घायल हो गए लेकिन उन्होंने अपनी फौज को आदेश दिया की अगर उनकी मोत हो जाये तो उसकी खबर बहार न जाने पाए और अगले चार दिन तक हरी सिंह के कपड़ो को किल्ले के बहार सुखाया गया। 

जमरूद किल्ला
जमरूद किल्ला

अफगान फौज हरी सिंह से इतनी घबराई हुयी थी की उन्होंने अगले चार दिन तक सीधा हमला नहीं किया और दूर से किल्ले पर गोली बारी करते रहे। चार दिन बाद जब उन्हें खबर लगी की हरी सिंह नहीं रहे तब तक बहुत देर हो चुकी थी लाहौर से दूसरी सेना पहुंच गयी थी और उसकी वजह से अफगान फौज को पीछे हटना पड़ा। और इस तरह जमरूद और पेशावर को बचा लिया गया। हरी सिंह की मृत्यु से सिख साम्राज्य को बड़ा झटका लगा और महाराज रणजीत सिंह काबुल को अपने कब्जे में लेने का अपना सपना पूरा नहीं कर पाए। 

हरी सिंह की आखरी इच्छा को ध्यान में रखते हुए उनकी राख को उसी अखाड़े की मिटटी में मिला दिया गया जिसमे उन्होंने कुस्ती में पहली लड़ाई जीती थी। 

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