जन्म 3 अप्रैल 1914 को पंजाब में स्थित अमृतसर में हुआ था, फील्ड मार्शल मानेकशॉ 1969 में भारतीय सेना के प्रमुख सेना अध्यक्ष बने और उनके आदेश के तहत, 1971 में हुए भारत-पाकिस्तान युद्ध में भारतीय सेना ने एक शानदार जीत हासिल की।
वह फील्ड मार्शल का सर्वोच्च पद (रैंक) रखने वाले दो भारतीय सैन्य अधिकारियों में से एक हैं। उन्होंने चार दशकों तक सेना में रहकर सेवा की और द्वितीय विश्व युद्ध सहित पाँच युद्धों को भी अपने कार्यकाल में देखा। वह भारतीय सैन्य अकादमी (आई.एम.ए.) देहरादून में, 40 सैनिक छात्रों के पहले समूह में से एक थे, जहाँ से उन्होंने दिसंबर 1934 में अपनी सैन्य शिक्षा उत्तीर्ण की। उन्होंने पहली बार रॉयल स्कॉट्स में सेवा की और बाद में 4/12 फ्रंटियर फोर्स रेजिमेंट में भारतीय सेना के एक दूसरे साधिकार प्रतिनिधि के रूप में भी उन्होंने कार्य किया। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, मानेकशॉ ने एक कप्तान के रूप में 4/12 फ्रंटियर फोर्स रेजिमेंट के साथ मिलकर देश की सेवा की और बर्मा अभियान में भी हिस्सा लिया।
वह बर्मा में चल रहे अभियान के दौरान गंभीर रूप से घायल हो गए थे और फिर ठीक होने के बाद, उन्होंने कर्मचारी महाविद्यालय (स्टाफ कॉलेज), क्वेटा में एक कोर्स किया, इस कोर्स को करने से पहले उन्हें पुन: बर्मा भेजा गया जहाँ वह फिर से घायल हो गए। 1947-48 के जम्मू और कश्मीर संचालन के दौरान उन्होंने अपनी रणनीतिक दक्षता का प्रदर्शन किया और बाद में उन्हें 8 गोर्खा राइफल्स का कर्नल बनाया गया और इससे पहले उन्हें इन्फैन्ट्री स्कूल का सेनानायक भी बनाया गया। उन्हें जीओसी-इन-सी पूर्वी कमान के तौर पर नियुक्त किया गया जहाँ उन्होंने नागालैंड में हो रहे विद्रोह को संभाला। 7 जून 1969 को वह सेना के 8वें मुख्य अधिकारी बने।

सैनिक जीवन
17वी इंफेंट्री डिवीजन में तैनात सैम ने पहली बार द्वितीय विश्व युद्घ में जंग का स्वाद चखा, ४-१२ फ्रंटियर फोर्स रेजिमेंट के कैप्टन के तौर पर बर्मा अभियान के दौरान सेतांग नदी के तट पर जापानियों से लोहा लेते हुए वे गम्भीर रूप से घायल हो गए थे।
स्वस्थ होने पर मानेकशॉ पहले स्टाफ कॉलेज क्वेटा, फिर जनरल स्लिम्स की 14वीं सेना के 12 फ्रंटियर राइफल फोर्स में लेफ्टिनेंट बनकर बर्मा के जंगलों में एक बार फिर जापानियों से दो-दो हाथ करने जा पहुँचे, यहाँ वे भीषण लड़ाई में फिर से बुरी तरह घायल हुए, द्वितीय विश्वयुद्घ खत्म होने के बाद सैम को स्टॉफ आफिसर बनाकर जापानियों के आत्मसमर्पण के लिए इंडो-चायना भेजा गया जहां उन्होंने लगभग 10000 युद्घ बंदियों के पुनर्वास में अपना योगदान दिया।
1946 में वे फर्स्ट ग्रेड स्टॉफ ऑफिसर बनकर मिलिट्री आपरेशंस डायरेक्ट्रेट में सेवारत रहे, भारत के विभाजन के बाद 1947-48 की भारत-पाकिस्तान युद्ध 1947 की लड़ाई में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारत की आजादी के बाद गोरखों की कमान संभालने वाले वे पहले भारतीय अधिकारी थे। गोरखों ने ही उन्हें सैम बहादुर के नाम से सबसे पहले पुकारना शुरू किया था। तरक्की की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए सैम को नागालैंड समस्या को सुलझाने के अविस्मरणीय योगदान के लिए 1968 में पद्मभूषण से नवाजा गया।
7 जून 1969 को सैम मानेकशॉ ने जनरल कुमारमंगलम के बाद भारत के 8वें चीफ ऑफ द आर्मी स्टाफ का पद ग्रहण किया, उनके इतने सालों के अनुभव के इम्तिहान की घड़ी तब आई जब हजारों शरणार्थियों के जत्थे पूर्वी पाकिस्तान से भारत आने लगे और युद्घ अवश्यंभावी हो गया, दिसम्बर 1971 में यह आशंका सत्य सिद्घ हुई, सैम के युद्घ कौशल के सामने पाकिस्तान की करारी हार हुई तथा बांग्लादेश का निर्माण हुआ,

आजादी के बाद
विभाजन से जुड़े मुद्दों पर कार्य करते हुए मानेकशॉ ने अपने नेतृत्व कुशाग्रता का परिचय दिया और योजना तथा शासन प्रबंधन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाया। सन 1947-48 के जम्मू और कश्मीर अभियान के दौरान भी उन्होंने युद्ध निपुणता का परिचय दिया। एक इन्फेंट्री ब्रिगेड के नेतृत्व के बाद उन्हें म्हो स्थित इन्फेंट्री स्कूल का कमांडेंट बनाया गया और वे 8वें गोरखा राइफल्स और 61वें कैवेलरी के कर्नल भी बन गए। इसके पश्चात उन्हें जम्मू कश्मीर में एक डिवीज़न का कमांडेंट बनाया गया जिसके पश्चात वे डिफेन्स सर्विसेज स्टाफ कॉलेज के कमांडेंट बन गए। इसी दौरान तत्कालीन रक्षामंत्री वी. के. कृष्ण मेनन के साथ उनका मतभेद हुआ जिसके बाद उनके विरुद्ध ‘कोर्ट ऑफ़ इन्क्वारी’ का आदेश दिया गया जिसमें वे दोषमुक्त पाए गए। इन सब विवादों के बीच चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया और मानेकशॉ को लेफ्टिनेंट जनरल पदोन्नत कर सेना के चौथे कॉर्प्स की कमान सँभालने के लिए तेज़पुर भेज दिया गया।
सन 1963 में उन्हें आर्मी कमांडर के पद पर पदोन्नत किया गया और उन्हें पश्चिमी कमांड की जिम्मेदारी सौंपी गयी। सन 1964 में उन्हें ईस्टर्न आर्मी के जी-ओ-सी-इन-सी के तौर पर शिमला से कोलकाता भेजा गया। इस दौरान उन्होंने नागालैंड से आतंकवादी गतिविधियों का सफलता पूर्वक सफाया किया जिसके स्वरुप सन 1968 में उन्हें पद्म भूषण प्रदान किया गया।

जीत के जनक
1971 में इंदिरा गांधी के राजनीतिक नेतृत्व में सैम मानेकशॉ ने उस राष्ट्रीय अपमान को धो डाला जिसमें एक पाकिस्तानी फौजी 10-10 भारतीय फौजियों के बराबर होता है। इस फितूर के शिकार पाकिस्तानियों को पहली बार हकीकत का अहसास हुआ। यहां इस घटना का ज़िक्र प्रासंगिक होगा कि इंदिरा गांधी दिसंबर 1970 से क़रीब आठ महीने पहले फौजी कार्रवाई चाहती थीं। मानेकशॉ ने साफ़ मना कर दिया था क्योंकि निर्णायक जीत के लिए तब तक भारत की सशस्त्र सेनाएं तैयार नहीं थीं। पहली बार भारत की थल सेना, वायुसेना और नौसेना ने समन्वित कार्रवाई की। थल सेना ढाका की ओर बढ़ रही थी, तो नौसेना की मिसाइल बोटों के हमले से कराची बंदरगाह धू-धूकर जल रहा था। मानेकशॉ के कुशल सैनिक नेतृत्व का ही यह कमाल था। इंदिरा गांधी चाहती थीं कि एक तरफ बांग्लादेश बने और दूसरी तरफ पश्चिमी पाकिस्तान को इतना तबाह कर दिया जाए कि लंबे समय तक वह सिर न उठा सके। उनका आदेश था ‘स्मैश पाक वॉर मशीन।’ मानेकशॉ को भरोसा था कि वह इसे कर दिखाएंगे। यह संभव नहीं हो पाया क्योंकि सोवियत संघ ने इसके लिए मना कर दिया था। फौजी साजोसामान और सुरक्षा परिषद में वीटो के लिए सोवियत संघ पर निर्भर भारत अकेले पश्चिमी पाकिस्तान की कमर न तोड़ पाता। सोवियत संघ को अमेरिका और चीन ने संदेश दिया था कि भारत ने पश्चिमी पाकिस्तान में सैनिक कार्रवाई जारी रखी, तो वे हस्तक्षेप करेंगे। इंदिरा गांधी का राजनीतिक मिशन अधूरा रह गया। फिर भी मानेकशॉ के सैनिक नेतृत्व ने राष्ट्र को सर्वथा नया आत्मविश्वास दिया। याद करें, इससे पहले कब शत्रु सैनिकों ने इस तरह भारत के आगे घुटने टेके थे? सेल्यूकस की यूनानी सेना पर चंद्रगुप्त मौर्य की निर्णायक जीत के बाद शताब्दियों के इतिहास में दूसरा उदाहरण नहीं मिलता।
निधन
मानेकशॉ का निधन 27 जून 2008 को निमोनिया के कारण वेलिंगटन (तमिल नाडु) के सेना अस्पताल में हो गया। मृत्यु के समय उनकी आयु 94 साल थी।
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