जाट राजा सूरजमल

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महाराजा बदनसिंह की मृत्यु के बाद उसके पुत्र महाराजा सूरजमल जाट 1756 ई. में भरतपुर राज्य का शासक बना. राजनैतिक कुशलता और कुशाग्र बुद्धि के कारण उसे जाट जाति का प्लेटों भी कहा जाता है. आगरा, मेरठ, मथुरा, अलीगढ़ आदि उसके राज्य में सम्मिलित थे.

महाराजा सूरजमल अन्य राज्यों की तुलना में हिन्दुस्तान का सबसे शक्तिशाली शासक था. इनकी सेना में 1500 घुड़सवार व 25 हजार पैदल सैनिक थे. उन्होंने अपने पीछे 10 करोड़ का सैनिक खजाना छोड़ा. मराठा नेता होलकर ने 1754 में कुम्हेर पर आक्रमण कर दिया. महाराजा सूरजमल ने नजीबुद्दोला द्वारा अहमद शाह अब्दाली के सहयोग से भारत को मजहबी राष्ट्र बनाने को कोशिश को भी विफल कर दिया.

इन्होने अफगान सरदार असंद खान, मीर बख्शी, सलावत खां आदि का दमन किया. अहमद शाह अब्दाली 1757 में दिल्ली पहुच गया और उसकी सेना ने ब्रज के तीर्थ को नष्ट करने के लिए आक्रमण किया. इसको बचाने के लिए केवल महाराजा सूरजमल ही आगे आये और उनके सैनिको ने बलिदान दिया. अब्दाली पुनः लौट गया.

जब सदाशिव राव भाऊ अहमद शाह अब्दाली को पराजित करने के उद्देश्य से आगे बढ़ रहा था, तभी स्वयं पेशवा बालाजी बाजीराव ने भाऊ को परामर्श दिया कि उत्तर भारत में मुख शक्ति के रूप में उभर रहे महाराजा सूरजमल का सम्मान कर उनके परामर्श पर ध्यान दिया जाए. लेकिन भाऊ ने युद्ध सम्बन्धी इस परामर्श पर ध्यान नही दिया और अब्दाली के हाथों पराजित हो गया.

14 जनवरी, 1761 में हुए पानीपत के तीसरे युद्ध में मराठा शक्तिओं का संघर्ष अहमदशाह अब्दाली से हुआ। इसमें एक लाख में से आधे मराठा सैनिक मारे गये। मराठा सेना के पास न तो पूरा राशन था और न ही इस क्षेत्र की उन्हें विशेष जानकारी थी। यदि सदाशिव भाऊ के महाराजा सूरजमल से मतभेद न होते, तो इस युद्ध का परिणाम भारत और हिन्दुओं के लिए शुभ होता।

इसके बाद भी महाराजा सूरजमल ने अपनी मित्रता निभाई। उन्होंने शेष बचे घायल सैनिकों के अन्न, वस्त्र और चिकित्सा का प्रबंध किया। महारानी किशोरी ने जनता से अपील कर अन्न आदि एकत्र किया। ठीक होने पर वापस जाते हुए हर सैनिक को रास्ते के लिए भी कुछ धन, अनाज तथा वस्त्र दिये। अनेक सैनिक अपने परिवार साथ लाए थे। उनकी मृत्यु के बाद सूरजमल ने उनकी विधवाओं को अपने राज्य में ही बसा लिया। उन दिनों उनके क्षेत्र में भरतपुर के अतिरिक्त आगरा, धौलपुर, मैनपुरी, हाथरस, अलीगढ़, इटावा, मेरठ, रोहतक, मेवात, रेवाड़ी, गुड़गांव और मथुरा सम्मिलित थे।

मराठों की पराजय के बाद भी महाराजा सूरजमल ने गाजियाबाद, रोहतक और झज्जर को जीता। वीर की सेज समरभूमि ही है। 25 दिसम्बर, 1763 को नवाब नजीबुद्दौला के साथ हुए युद्ध में गाजियाबाद और दिल्ली के मध्य हिंडन नदी के तट पर महाराजा सूरजमल ने वीरगति पायी। उनके युद्धों एवं वीरता का वर्णन सूदन कवि ने ‘सुजान चरित्र’ नामक रचना में किया है।

दिल्ली की लूट

सल्तनत काल से मुग़लकाल तक लगभग छह सौ सालों में ब्रज पर आयीं मुसीबतों का कारण दिल्ली के मुस्लिम शासक थे, इस कारण ब्रज में इन शासकों के लिए बदले, क्रोध और हिंसा की भावना थी जिसका किए गये विद्रोहों से पता चलता है। दिल्ली प्रशासन के सैनिक अधिकारी अपनी धर्मान्धता की वजह से लूटमार थे।

महाराजा सूरजमल के समय में परिस्थितियाँ बदल गईं थी। यहाँ के वीर व साहसी पुरुष किसी हमलावर से स्वसुरक्षा में ही नहीं, बल्कि उस पर हमला करने में ख़ुद को काबिल समझने लगे। सूरजमल द्वारा की गई ‘दिल्ली की लूट’ का विवरण उनके राजकवि सूदन द्वारा रचित ‘सुजान चरित्र’ में मिलता है। सूदन ने लिखा है कि महाराजा सूरजमल ने अपने वीर एवं साहसी सैनिकों के साथ सन् 1753 के बैसाख माह में दिल्ली कूच किया। मुग़ल सम्राट की सेना के साथ राजा सूरजमल का संघर्ष कई माह तक होता रहा और कार्तिक के महीने में राजा सूरजमल दिल्ली में दाखिल हुआ। दिल्ली उस समय मुग़लों की राजधानी थी। दिल्ली की लूट में उसे अथाह सम्पत्ति मिली, इसी घटना का विवरण काव्य के रूप में ‘सुजान−चरित्र’ में इस प्रकार किया है

महाराजा सूरजमल का यह युद्ध जाटों का ही नहीं वरन् ब्रज के वीरों की मिलीजुली कोशिश का परिणाम था। इस युद्ध में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के अलावा गुर्जर, मैना और अहीरों ने भी बहुत उल्लास के साथ भाग लिया। सूदन ने लिखा है। इस युद्ध में गोसाईं राजेन्द्र गिरि और उमराव गिरि भी अपने नागा सैनिकों के साथ शामिल थे। महाराजा सूरजमल को दिल्ली की लूट में जो अपार धन मिला था, उसे जनहित कार्यों और निर्माण कार्यों में प्रयोग किया गया। दिल्ली विजय के बाद महाराजा सूरजमल ने गोवर्धन जाकर श्री गिरिराज जी की पूजा थी; और मानसी गंगा पर दीपोत्सव मनाया।

महाराजा सूरजमल की उदारता

14 जनवरी 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई मराठों और अहमदशाह अब्दाली के बीच हुई। मराठों के एक लाख सैनिकों में से आधे से ज्यादा मारे गए। मराठों के पास न तो पूरा राशन था और न ही इस इलाके का उन्हें भेद था, कई-कई दिन के भूखे सैनिक क्या युद्ध करते ? अगर सदाशिव राव महाराजा सूरजमल से छोटी-सी बात पर तकरार न करके उसे भी इस जंग में साझीदार बनाता, तो आज भारत की तस्वीर और ही होती| महाराजा सूरजमल ने फिर भी दोस्ती का हक अदा किया। तीस-चालीस हजार मराठे जंग के बाद जब वापस जाने लगे तो सूरजमल के इलाके में पहुंचते-पहुंचते उनका बुरा हाल हो गया था। जख्मी हालत में, भूखे-प्यासे वे सब मरने के कगार पर थे और ऊपर से भयंकर सर्दी में भी मरे, आधों के पास तो ऊनी कपड़े भी नहीं थे। दस दिन तक सूरजमल नें उन्हें भरतपुर में रक्खा, उनकी दवा-दारू करवाई और भोजन और कपड़े का इंतजाम किया। महारानी किशोरी ने भी जनता से अपील करके अनाज आदि इक्ट्ठा किया। सुना है कि कोई बीस लाख रुपये उनकी सेवा-पानी में खर्च हुए। जाते हुए हर आदमी को एक रुपया, एक सेर अनाज और कुछ कपड़े आदि भी दिये ताकि रास्ते का खर्च निकाल सकें। कुछ मराठे सैनिक लड़ाई से पहले अपने परिवार को भी लाए थे और उन्हें हरयाणा के गांवों में छोड़ गए थे। उनकी मौत के बात उनकी विधवाएं वापस नहीं गईं। बाद में वे परिवार हरयाणा की संस्कृति में रम गए। महाराष्ट्र में ‘डांगे’ भी जाटवंश के ही बताये जाते हैं और हरयाणा में ‘दांगी’ भी उन्हीं की शाखा है।

मराठों के पतन के बाद महाराजा सूरजमल ने गाजियाबाद, रोहतक, झज्जर के इलाके भी जीते। 1763 में फरुखनगर पर भी कब्जा किया। वीरों की सेज युद्धभूमि ही है।